Course Type | Course Code | No. Of Credits |
---|---|---|
Discipline Core | NSOL1HN101 | 4 |
Course Coordinator and Team: SES Faculty
Email of course coordinator: pcbabed@aud.ac.in
Pre-requisites: No
- Course Description:
हिंदी की विशाल काव्य-राशि बनती-बदलती रही है परंतु आधुनिकता के आगमन, खड़ी बोली के साहित्यिक भाषा के रूप में विकसित होने, और राष्ट्र की अवधारणा के साथ उसकी संगति विद्वानों के अनुसार लगभग 1850 से मानी जा सकती है। भारतेंदु हरिश्चंद्र की अगुवाई में पहली बार खड़ी बोली को नयी विधाओं और स्वरों में ढाला गया। यह पुरानी ब्रज काव्य-भाषा और परंपरा से खड़ी बोली में संक्रमण था। ब्रज काव्य-परंपरा की रीति बंधी प्रणाली और वैचारिकी से कविता बाहर आयी क्योंकि ब्रज अब नए जमाने के प्रश्नों और चुनौतियों का वहन करने में सक्षम न थी। यह पाठ्यक्रम खड़ी बोली के उसी आरम्भिक दौर की कविताओं से शुरू होकर राष्ट्र-निर्माण के विभिन्न प्रश्नों से जूझती कविताओं को अपने में सम्मिलित करता है। साथ ही यह पाठ्यक्रम छायावाद और छायावादोत्तर कविताओं का अध्ययन भी करता है जिसके सहारे विद्यार्थी उस दौर की कविता में वैयक्तिकता के उभार, प्रकृति-प्रेम, सांस्कृतिक जागरण, स्वच्छंदता व कल्पना आदि मूल्यों की समझ विकसित कर सकेंगे।
- Course Objectives:
इस पाठ्यक्रम के अध्ययन से विद्यार्थी अपनी साहित्यिक काव्य परंपरा का बोध विकसित कर सकेंगे। खड़ी बोली के काव्यभाषा के रूप में विकसित होने की प्रक्रिया समझ सकेंगे। वे राष्ट्रीय व सांस्कृतिक जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्तियों से परिचय हासिल कर सकेंगे। साथ ही वे हिंदी की आधुनिक कविता को रूपाकार देने वाले छायावादी कवियों की कविताओं के अध्ययन के सहारे तत्कालीन समय-समाज में व्याप्त वैचारिक आलोड़नों का विश्लेषण करने में भी सक्षम हो सकेंगे।
- Course Outcomes:
- विद्यार्थी खड़ी बोली के काव्य-भाषा बन जाने की प्रक्रिया समझ सकेंगे।
- कविता पढ़ने-समझने, विश्लेषित करने व उसके रसास्वादन का ढब विकसित कर सकेंगे।
- राष्ट्रीय व सांस्कृतिक जागरण की विभिन्न काव्यात्मक अभिव्यक्तियों को विश्लेषित कर सकेंगे।
- इतिवृत्तात्मकता से आगे बढ़ते हुए कविता के परवर्ती संघनित रूपों का विश्लेषण कर सकेंगे।
- Brief description of the modules:
माड्यूल-1
भारतेंदु युग और द्विवेदी युग की कविताएँ
हिंदी कविता के इतिहास में भारतेंदु युग (1850-1900) पुरानी ब्रज भाषा कविता से खड़ी बोली काव्य में संक्रमण के लिए जाना जाता है। अन्य आधुनिक विधाओं की तरह कविता में भी भारतेंदु इस संक्रमण भूमि पर खड़े हैं और आधुनिकता की तरह बढ़ते दीखते हैं। वे ब्रजभाषा, उर्दू और खड़ी बोली, तीनों में कविता करते हैं पर उनका झुकाव खड़ी बोली की तरफ ही है। इसी दौर में ब्रज भाषा कविता के दरबारीपने, रूढ़ियों और बंधी-बँधाई चाल से निकलकर हिंदी कविता की 'नयी चाल में ढली'। राष्ट्रीयता की भावना भी इस युग की कविताओं में दीखने लगती है। द्विवेदी युग (1900-1918) तक आते-आते हिंदी कविता अपने समय की सामाजिक-सांस्कृतिक सच्चाइयों को और अधिक बल के साथ अभिव्यक्ति देने लगती है। मिथकों की पुनर्व्याख्या के साथ ही सामान्य जन जीवन के कष्ट भी कविता के विषय बनने शुरू होते हैं। राष्ट्रीयता के उभार के साथ ही भारतीयता को पहचानने-व्याख्यायित करने की चुनौती उस दौर की कविताओं में दिखने लगती है। मिथकों की पुनर्व्याख्या के सहारे एक ओर उस दौर के कवि-बुद्धिजीवी तत्कालीन बर्तानवी हुकूमत के सांस्कृतिक दबदबे को चुनौती दे रहे थे वहीं दूसरी ओर भारतीय समाज और संस्कृति के तमाम पिछड़े हुए पहलुओं में सुधार कार्य का बीड़ा भी वे अपनी कविताओं के कंधे पर उठाए हुए थे।
निर्धारित पाठ:
- भारतेंदु: 'चुनिंदा दोहे', 'नए जमाने की मुकरी', 'हरी हुई भूमि सब'
- हरिऔध: 'हम और तुम', 'कर्मवीर'
- मैथिलीशरण गुप्त: 'साकेत अष्टम सर्ग से चुनिंदा अंश'
- रामनरेश त्रिपाठी: 'अतुलनीय जिसके प्रताप का'
माड्यूल-2
छायावाद
हिंदी कविता के इतिहास में 1918 से 1936 तक के समय को छायावाद संज्ञा से अभिहित किया जाता है। हिंदी आधुनिक कविता इस काल में अपनी पूर्ववर्ती कविता से सीखते हुए व्यवस्थित होती है। इस व्यवस्था में भाषा की व्यवस्था के साथ भावों की व्यवस्था भी शामिल है। इस दौर के कवियों पर स्वच्छंदतावाद, रहस्यवाद व बांग्ला कविता का गहरा असर आलोचकों ने चिन्हित किया है। राष्ट्रीय सांस्कृतिक जागरण की चली आ रही काव्य-परंपरा इस दौर में आगे बढ़ती ही है, साथ ही प्रकृति के साथ इस दौर के कवि नए तरह का संबंध विकसित करते हैं। इस दौर की कविता में 'व्यक्ति' की प्रधानता भी देखी जा सकती है जिसे निराला 'मैंने मैं शैली अपनाई' जैसी कविताओं के सहारे अभिव्यक्त करते हैं। कल्पना प्रवणता इस दौर की कविता का एक और विशिष्ट गुण है। नए सिरे से स्त्री-छवि और प्रेम का निर्माण भी इस दौर की कविताओं की प्रमुख प्रवृत्ति है। जयशंकर प्रसाद व अन्य कवियों ने इस दौर की कविता में दार्शनिकता के नए आयाम दिए।
निर्धारित पाठ
- प्रसाद: 'बीती विभावरी जाग री', 'अरूण यह मधुमय देश हमारा'
- पंत: 'ताज' और 'छोड़ द्रुमों की मृदु छाया'
- निराला: 'बादल राग-6' और 'बांधो न नाव इस ठाँव बंधु'
- महादेवी: 'पंथ होने दो अपरिचित', और 'मधुर मधुर मेरे दीपक जल'
माड्यूल- 3
इस मॉड्यूल में केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन और मुक्तिबोध की कविताओं का अध्ययन किया जायेगा। इन सभी कवियों का संबंध प्रगतिशील आंदोलन से है लेकिन इनकी कविताओं में उनका अपना क्षेत्र रचा-बसा हुआ है। केदारजी की कविता केन नदी और बांदा से अपनी जीवनीशक्ति हासिल करती है तो नागार्जुन की कविता मिथिला के अंचल से। त्रिलोचन की कविताओं में अवध का जीवन सांस ले रहा है तो मुक्तिबोध की कविताओं में मालवा के पठार और घाटियां अपने भूगोल के साथ उपस्थित हैं। ये कवि प्रगतिशीलता की विचारधारा को अपने लोक की भूमि पर स्थापित करते हैं। मुक्तिबोध की कवितायें 'तार सप्तक' में प्रकाशित हुई थीं लेकिन बाद में उनकी कविताओं की संरचना और स्वर भिन्नतर होता चला गया।
निर्धारित पाठ:
केदार नाथ अग्रवाल - बसंती हवा, आज नदी बिलकुल उदास थी
नागार्जुन - उनको प्रणाम, कालिदास सच सच बतलाना
त्रिलोचन - चंपा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती, तुलसी बाबा
गजानन माधव मुक्तिबोध - मुझे कदम-कदम पर, सहर्ष स्वीकारा है
माड्यूल 4
हिंदी कविता के इतिहास में प्रयोगवाद एक महत्त्वपूर्ण काव्य प्रवृत्ति के रूप में स्थापित है। अज्ञेय न सिर्फ इस काव्य प्रवृत्ति के प्रतिनिधि रचनाकार हैं बल्कि वे प्रयोगवाद के सिद्धांतकार भी हैं। व्यक्ति और समाज के संबंधों पर व्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में उनके विचार कविता और आलोचनात्मक लेखों में मौजूद हैं। आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास में 'तार सप्तक' का प्रकाशन एक महत्त्वपूर्ण घटना है। इसके जरिये अज्ञेय ने हिंदी कविता की नयी दिशा को पहचानने और एक हद तक नयी दिशा देने की भी कोशिश की। भवानी प्रसाद मिश्र 'दूसरा सप्तक' में प्रकाशित कवि हैं। उनकी कविताओं और जीवन दोनों में गांधी विचार और दर्शन की स्पष्ट छाप दिखाई पड़ती है। शमशेर बहादुर सिंह की कवितायें ऐंन्द्रियता, सांकेतिकता और चित्रात्मकता के लिहाज से विशिष्ट हैं। उर्दू और हिंदी में समान गति होने के कारण उन्हें हिंदी और उर्दू का दोआब भी कहा जाता है। इस मॉड्यूल में इन तीनों कवियों की निर्धारित कविताओं का अध्ययन किया जायेगा।
निर्धारित पाठ :
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'- कलगी बाजरे की, हरी घास पर क्षण भर
भवानी प्रसाद मिश्र- सतपुड़ा के जंगल, चार कौए उर्फ चार हौए
शमशेर बहादुर सिंह - निराला के प्रति, तड़पती हुई से ग़ज़ल कोई लाये
Assessment Plan
S.No |
Assessment |
Weightage |
1 |
Assignment-1 |
20% |
2 |
Assignment-2 |
30% |
3 |
Term-End |
50% |
Readings:
- भारतेंदु प्रतिनिधि रचनाएँ, कृष्णदत्त पालीवाल, सचिन प्रकाशन, दिल्ली, 1987
- साकेत, मैथिलीशरण गुप्त, साहित्य सदन, झाँसी, 2014
- मैथिलीशरण गुप्त संचयिता, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2002
- प्रतिनिधि कविताएँ, जयशंकर प्रसाद, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2015
- स्वच्छंद, सम्पादक अशोक वाजपेयी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2000
- राग-विराग, सम्पादक रामविलास शर्मा, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, 2008
- महादेवी, प्रतिनिधि कविताएँ, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 1983
- प्रतिनिधि कवितायें - नागार्जुन, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
- प्रतिनिधि कवितायें - केदारनाथ अग्रवाल, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली