Course Type | Course Code | No. Of Credits |
---|---|---|
Foundation Elective | NA | 4 |
Semester and Year Offered: WS2021
Course coordinator and team Prof. Satyaketu Sankrit, Prof. Gopal Pradhan
Email of course coordinator: gopalji[at]aud[dot]ac[dot]in
Pre-requisites: None
Course Objectives/Description:
1990 के दशक में सोवियत संघ के पराभव के बाद नव उदारवादी आर्थिकी और वैचारिकी की प्रधानता दिखायी पड़ी। इसने पारंपरिक सामाजिक संरचना में व्यापक तोड़-फोड़ की। ऐसी हालत में पुरानी अस्मिताओं का पुनर्गठन हुआ। इस पुनर्गठन को 1960 दशक के उत्तरार्द्ध में पैदा नव सामाजिक आंदोलनों से भी प्रेरणा मिली थी। स्वाभाविक रूप से इस नये माहौल की अपनी सैद्धांतिकी भी निर्मित हुई जिसमें उत्तरआधुनिकता, उत्तर संरचनावाद, विखंडनवाद आदि प्रमुख हैं। इन अस्मिताओं में एक तरह की पारस्परिकता देखने में आती है जिसमें सहकार और प्रतिद्वंद्विता दोनों के पहलू उजागर होते हैं। नये समय में दावेदारी के लिए इन अस्मिताओं ने साहित्य को अपना प्रमुख माध्यम बनाया।
Course Outcomes:
उदारीकरण के बाद बने संसार के बारे में समझ पैदा करना।
समाज में विभिन्न अस्मिताओं की पहचान की समझ निर्मित करना।
इन पहचानों को निर्मित करने वाली सैद्धांतिकी से परिचित कराना।
अस्मिता विमर्श से उत्पन्न साहित्यिक अभिव्यक्ति का बोध विकसित करना।
Brief description of modules/ Main modules:
माड्यूल 1:
अस्मिता विमर्श की पृष्ठभूमि
1990 का दशक समूचे संसार में कुछेक बुनियादी परिवर्तनों के लिए मशहूर है। वस्तुत: 1989 का साल दुनिया के इतिहास में निर्णायक मोड़ वाले कुछ एक सालों में से एक था। इसने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बने हुए विश्व भूगोल को तो बदल ही दिया साथ ही शीत युद्ध से निर्मित मानसिक जगत को भी गंभीर झटका दिया। नये समय में निजीकरण और उदारीकरण ने संपत्ति के संकेन्द्रण को बढ़ावा देने के साथ ही मध्यवर्ग का भी विस्तार किया। इस मध्यवर्ग में समाज के विभिन्न समुदायों के लोग शामिल थे जिन्होंने अपने समुदायों की सामूहिक आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए अस्मिताओं की दावेदारी करनी शुरू की। इस नये माहौल ने 60 के दशक में सामने आए नव सामाजिक आंदोलनों की विरासत से भी बहुत कुछ ग्रहण किया। इस मॉड्यूल में एतद्विषक प्रश्नों से विद्यार्थियों को परिचित कराया जायेगा।
निर्धारित पाठ:
दलित और अश्वेत साहित्य कुछ विचार: चमनलाल, आईआईएएस शिमला, 2001
अफ़्रो-अमेरिकन साहित्य, विजय शर्मा, वाणी प्रकाशन, 2014
माड्यूल 2:
अस्मिता विमर्श की सैद्धांतिकी
योरपीय देशों में 60 के दशक के नव सामाजिक आंदोलनों ने नये तरह के विचारकों और विचारों को प्रतिष्ठा प्रदान की। खासकर उत्तर संरचनावादी विचारों के प्रवर्तक मिशेल फूको और विखंडनवाद के पुरस्कर्ता याक देरिदा का नाम अस्मिता विमर्श की सैद्धांतिकी से जोड़ा जाता है। साथ ही नारीवाद और अश्वेत साहित्य संस्कृति की दावेदारी से पैदा हुआ बहुसंस्कृतिवाद भी अस्मिताविमर्श की सैद्धांतिकी का महत्वपूर्ण अंग है। इन सब अवधारणाओं, विचारों और विचारकों से विद्यार्थी परिचित होंगे।
निर्धारित पाठ :
उत्तर आधुनिक साहित्यिक विमर्श: सुधीश पचौरी, वाणी प्रकाशन, 2005साहित्य और स्वतंत्रता प्रश्न प्रतिप्रश्न: देवेंद्र इस्सर, भारतीय ज्ञानपीठ, 2005उत्तर औपनिवेशिकता के स्रोत और हिंदी साहित्य, प्रणय कृष्ण, लोकभारती, 2008
माड्यूल 3:
अस्मिताओं की पारस्परिकता
इन विभिन्न अस्मिताओं में पारस्परिक सहकार इस अर्थ में था कि ये बहुकेन्द्रीयता की पक्षधर होने से ही अपने लिए अवकाश पैदा कर सकती थीं। लेकिन साथ ही साथ इन अस्मिताओं के बीच एक तरह की प्रतिद्वंद्विता भी दिखायी पड़ती है। यह प्रतिद्वंद्विता पश्चिमी जगत में जिस तरह अश्वेत, स्त्री और यूरोपेतर प्रवासी समुदायों के बीच नजर आयी थी, उसी तरह हिंदी में भी दलित विमर्श और स्त्री विमर्श के बीच भी प्रतिद्वंद्विता दिखायी पड़ी। स्त्री-पुरुष की स्पष्ट कोटियों के परे भी अन्य लैंगिक अस्मिताओं के उभार ने साहित्य के लोकतंत्र को विस्तारित करने की चुनौती पेश की है। इस मॉड्यूल में विद्यार्थी इस वैविध्य से परिचित होंगे।
निर्धारित पाठ :
भारतीय साहित्य में दलित और स्त्री, चमनलाल, सारांश प्रकाशन, 1997समकालीन हिंदी दलित साहित्य एक विचार विमर्श, सूरजपाल चौहान, वाणी प्रकाशन, 2017
माड्यूल 4:
अस्मिता विमर्श और साहित्य (दलित, स्त्री, आदिवासी, विकलांग और एलजीबीटीक्यू)
अस्मिताओं ने अपनी दावेदारी की अभिव्यक्ति के लिए साहित्य को महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में प्रयुक्त किया। इसके चलते ही दलित साहित्य, स्त्री साहित्यकी नयी कोटियां सामने आयीं। इसके अतिरिक्त इन विमर्शकारों ने इतिहास पर भी अपना दावा ठोंका और हिंदी साहित्य की मुख्यधारा की एकांगिता को उजागर कर दिया। अस्मिता विमर्श के साहित्यिक हस्तक्षेप का बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू अतीत की पुनर्व्याख्या है। यहां तक कि आत्मकथा को अभिव्यक्ति का प्रधान रूप बनाकर इन विमर्शों ने ज्ञान और अनुभव की चली आ रही पुरानी बहस में नये सिरे से हस्तक्षेप किया।
निर्धारित पाठ :
ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ, सुधा सिंह, ग्रंथशिल्पी प्रकाशन, 2008दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, डॉ. शरण कुमार लिंबाले, वाणी प्रकाशन, 2000दलित साहित्य: एक अंतर्यात्रा, बजरंग बिहारी तिवारी, नवारुण प्रकाशन, 2015दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र: ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्णप्रकाशन, 2008
Assessment Details with weightage:
Assessment 1: 25%
अस्मितावादी विमर्श के उद्भव की समझ का मूल्यांकन।
Assessment 2: 25%
अस्मिता विमर्श की सैद्धांतिकी की समझ का आलोचनात्मक मूल्यांकन।
Assessment 3: 25%
अस्मितावादी बहसों की पारस्परिकता संबंधी बहसों का मूल्यांकन।
Assessment 4: 25%
अस्मितावादी साहित्य की समझ का मूल्यांकन।